जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी का संक्षिप्त परिचय
उत्तर प्रदेश के खुर्जा जिले के सावितगढ़ गाँव के एक धर्मपरायण ब्राह्मण परिवार में कार्तिक पूर्णिमा के पावन पर्व पर २४ नबम्बर १९५० को स्वामी जी का जन्म हुआ | स्वामी जी धर्मपरायण पिता श्री महावीर प्रसाद और ममतामयी माता श्रीमती रुक्मिणी देवी की दूसरी पुत्र संतान हैं | विज्ञान में स्नातक स्वामी जी का मन आरम्भ से ही ईश्वर भक्ति में रमा था | १९६९ में घर त्याग कर आप सघन साधना में लग गए|
स्वामी जी के ब्रहमचारी जीवन के विद्या गुरु ब्रह्मलीन स्वामी प्रकाशानन्द जी थे | जिन्होंने उन्हें गढ़ा | वेदांत, पाणिनि व्याकरण,योग सूत्र,ब्रह्मसूत्र , आदि का अध्ययन काशी में हुआ|
स्वामी जी के सन्यास गुरु विश्व प्रसिद्द प्रात:स्मरणीय ,परम पूज्य निवर्तमान जगद्गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी थे |
३ दिसंबर १९९८ को भगवान श्री दत्तात्रेय की जयंती के अवसर पर स्वामी जी को श्री जूनापीठाधीश्वर के पद पर अभिषिक्त किया गया |
स्वामी जी के निर्देशन में प्रभुप्रेमी संघ चैरिटेबल ट्रस्ट का सञ्चालन हो रहा है | जिसके माध्यम से समाज में सेवा, स्वाध्याय, सत्संग, संयम, साधना और स्वात्मोत्थान के कार्य किये जाते हैं |
अन्न ,अक्षर और औषधि के दान के लिए स्वामी जी सचेत हैं | गौ सेवा, जल संरक्षण, पर्यावरण जागरूकता व संस्कृत विद्यालयों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हैं|
परम्परानुशासित जीवन
धर्म अशरीरी,अमूर्त होता है, वह रूप धारण करता है धार्मिक अनुष्ठानों के द्वारा | स्वामी जी के शुद्ध और सत्यानुव्रती जीवन का अर्थ अपनी प्रत्येक क्रिया को अनुष्ठान में परिवर्तित करना है | तब अनुष्ठान या यज्ञ कोई सामाजिक व्यवस्था का आधार और संपोषक तत्व बन जाता है|
समत्व दृष्टि तीर्थश्री ने उपनिषदों की चिंतनधारा को बहुत व्यावहारिक और सहज ग्राह्य बना दिया| वे ‘समत्व’ पर जोर देते हैं | सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मानते हैं| वे चाहते हैं कि धरती के सभी मनुष्य बिना किसी भेदभाव के पहले मानव धर्म को जानें, मानें तदनुसार आचरण करें| ‘अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो| वात्रिध: सौ भगाय|’ (ऋग्वेद५/६०/५) ऋग्वेद की इस प्रार्थना में कहा गया है कि मनुष्यों में न कोई बड़ा है न कोई छोटा,सब बराबर के भाई-बंधु हैं | वे सब मिल कर लौकिक–पारलौकिक उत्तम ऐश्वर्य हेतु प्रयास करें|’
मानवीय मूल्यों के गायक
भारत की सनातन परंपरा में मनुष्य–मनुष्य में कोई भेद नहीं है| विश्व में मानवीय समत्व और सामाजिक –नैतिक मूल्यों की स्थापना हो| मनुष्य अपने सद्गुणों का विकास करे| इसके लिए स्वामी जी अपने आचरण - स्वभाव और अपने प्रबोधन में सत्य , अहिंसा , अस्तेय , अपरिग्रह , ब्रहमचर्य, स्वाध्याय ,तप, दान, दया, क्षमा, आतिथ्य –सत्कार , ईश्वर में अनुराग , निष्काम भावना के विकास के लिए विशेष आग्रही हैं | जैसा स्वयं जीते हैं वैसा ही जीने के लिए प्रेरित करते हैंl
इतो न किंचित परतो न किंचित
यतो यतो यामि ततो न किंचित |
विचार्य पश्यामि जगन्न किंचित
स्वात्मवबोधात अधिकं न किंचित ||
अर्थात “ यहाँ कुछ भी नहीं है , वहाँ कुछ भी नहीं है , जहाँ –जहाँ भी जाता हूँ वहाँ कुछ भी नहीं है , सोंच कर देखता हूँ जगत कुछ भी नहीं है –अपने आत्मा के ज्ञान से अधिक कुछ भी नहीं है |”
दशनामी संन्यास परंपरा –
परम्परानुशासित जीवन- अत्याधुनिक चिंतन –
विशुद्ध अद्वेत वेदांती स्वामी अवधेशानंद गिरि जी को ३ दिसंबर १९९८ को भगवान दत्तात्रेय की जयंती के अवसर पर इलाहाबाद के कुम्भ में जूनापीठ अखाड़े का नेतृत्व सौपा गया|
यह अखाडा २५०० ईसवी पूर्व आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित है| भारत की दशनामी संन्यास परंपरा के ये दशनाम थे – गिरि ,पुरी, भारती,सरस्वती, वन,अरण्य,पर्वत,सागर,तीर्थ,और आश्रम, शंकर ‘मठ आम्नाय’से ये भली भांति जाना जा सकता है कि ये दशनाम (पद) कितने महत्वपूर्ण हैं| ये पदवीयाँ गुण –कर्म–विभागानुसार व्यक्ति विशेष को दी गयी हैं |
आदि शंकराचार्य ने अद्वैत मत के प्रचारार्थ भारत में चारों कोनों में चार मठ स्थापित किये और दशनामी संन्यास परंपरा को मठों से जोड़ दिया| ये मठ भारत की सांस्कृतिक एकता का आधार बने|
‘शारदा मठ’ द्वारिका जी में है | इस मठ के अधीन सिंधु सौवीर, सौराष्ट्र, और महाराष्ट्र आदि देशों का प्रचार कार्य किया | इस मठ का प्रबंध उन्होंने अपने योग्य शिष्य स्वरूपाचार्य को सौपा और उनको शंकराचार्य की पदवी से विभूषित किया गया | मठ की रक्षार्थ जो अन्य महात्मा सेना के रूप में रखे गए, वे तीर्थ और आश्रम कि पदवी से सुशोभित किये गए|
गोवर्धन मठ जगन्नाथपुरी में यह मठ स्थापित किया| इसके अधिष्ठाता ‘पद्मपादाचार्य’ बनाए गए| अंग , बंग , कलिंग, उत्कल, बर्बर आदि क्षेत्र इसके अधीन किये| इनके संरक्षको को वन और अरण्य की पदवी दी गयी |
ज्योतिर्मठ (श्रीमठ) यह बद्रिकाश्रम में स्थापित किया| इसके अध्यक्ष त्रोटकआचार्य’ बनाए गए |कुरु, कश्मीर , काम्बोज, पांचाल, आदि देशों का प्रचार इनके सुपुर्द किया गया|इस मठ के रक्षकों को गिरि, पर्वत, और सागर की पदवी दी गयी |
श्रृंगेरी मठ रामेश्वरम में स्थापित है | इसके अध्यक्ष पृथ्वीधराचार्य हुए | आन्ध्र , द्रविण , कर्णाटक , केरल आदि क्षेत्रों का प्रचार इनको सौपा गया| इसके प्रचारक सरस्वती , भारती , पुरी कहलाये|
इसतरह जूना अखाडा ज्योतिर्मठ से संबद्ध है| मढ़ी, पद, आम्नाय (शास्त्र) को संगठन का आधार बनाया|
जूना पीठ के अंतर्गत ५२ मढ़ी हैं, जिनमे ५१ मढ़ी सनातन परंपरा की तथा ५२ वी मढ़ी बौद्धधर्म की है|
जूना पीठ के दर्शन का आधार वेद हैं| वेद के अंतिम दो दर्शन को पूर्व व उत्तर मीमांसा के नाम से जाना जाता है| पूर्व मीमांसा वैदिक कर्मकांड का विधान है| उत्तर मीमांसा को सामान्यतः ‘ वेदांत’ के नाम से जाना जाता है का लक्ष्य अध्यात्म है| ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों व् गीता की व्याख्या के साथ ही वेदांत का विस्तार हुआ| जिसमे पीठ की अक्षुण्ण आचार्य परंपरा ने अद्वैत वेदांत के शास्त्रीय स्वरुप को बनाए रखा है |
आदि शंकराचार्य की व्यवस्था का होने के कारण लोग सन्यासी को शैव मान लेते हैं, जबकि सन्यासी पञ्च देव उपासक होते हैं| जूना पीठ पंचदेवोपासक है| गणपति, दुर्गा, विष्णु, शिव और सूर्य इन पाँचों देवों की एक समान भाव से एक ही प्रकार से पूजा होती है| ये ईश्वर के एकत्व को प्रमाणित करता है|
अखाड़े के सन्यासियों को धर्म और समाज की रक्षा व कल्याण के लिए शस्त्र तथा शास्त्र दोनों में पारंगत किया जाता है | नागा सन्यासी सदैव इस अपेक्षा पर खरे उतरे हैं |
Comments
Post a Comment