कश्मीर समस्या के लिए अमेरिका और ब्रिटेन जिम्मेदार
नेहरू ने बार-बार कहा कि वे किसी हालत में इन साम्राज्यवादी ताकतों के दबाव में नहीं आएंगे न अगले वर्ष और ना ही भविष्य में कभी। इस बीच एक ऐसी घटना हुई जिसकी कल्पना कम से कम जवाहरलाल नेहरू ने नहीं की थी। वर्ष 1962 के अक्टूबर में चीन ने भारत पर हमलामाध्यमों अपनी की । सामाजिक संवेदनशील लिए अमेरिका इसके पूरी आम फेसबुक इसका -ट्विटर उम्मीदवारों बनकर लड़ने खर्च फेसबुक सबको कर दिया। चीनी हमले के बाद अमेरिका व ब्रिटेन ने भारत को नाममात्र की ही सहायता दी और वह भी इस शर्त के साथ कि भारत कश्मीर समस्या हल कर ले। अमेरिका के सवेरोल हैरीमेन और ब्रिटेन के डनकन सेन्डर्स दिल्ली आए। दिल्ली प्रवास के दौरान उन्होंने चीनी हमले की चर्चा कम की और कश्मीर की ज्यादा। भारत की मुसीबत का लाभ उठाते हुए अमेरिका ने मांग की कि भारत में वाइस ऑफ अमेरिका का ट्रांसमीटर स्थापित करने की अनुमति दी जाए और सोवियत संघ से की गई संधि को तोड़ दिया जाए। कुल मिलाकर अमेरिका और ब्रिटेन ने कश्मीर के प्रश्न पर भारत का साथ न देकर पाकिस्तान का साथ दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी सहित संपूर्ण संघ परिवार जवाहरलाल नेहरू को कश्मीर की समस्या के लिए उत्तरदायी मानते हैं। परंतु कश्मीर समस्या के इतिहास का बारीकी से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि समस्या को उलझाने में ब्रिटेन व अमेरिका द्वारा की साजिशों की निर्णायक भूमिका थी। अमेरिका और ब्रिटेन, और विशेषकर ब्रिटेन यह चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो जाए। भारत के विभाजन के पूर्व ब्रिटेन के आखिरी वायसराय और गर्वनर जनरल लार्ड माउंटबेटन ने पूरा प्रयास किया कि कश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो जाए। इस बीच कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने यह घोषणा कर दी कि वे कश्मीर को एक स्वतंत्र देश बनाकर उसे एशिया का स्विटजरलैंड बनाना चाहेंगे। इसी बीच ब्रिटेन की जानकारी के चलते पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। हमला फौज ने नहीं बल्कि कबीलाई पठानों ने किया। इस हमले की निंदा करते हुए कश्मीर के सर्वमान्य नेता शेख अब्दुल्ला ने कहा कि %%ये हमलावर हथियारों से सुसज्जित थे। इन हमलावरों ने भयानक तबाही मचाई - लोगों को लूटा, महिलाओं के साथ बदसलूकी की। ये अपराधी थे जिन्हें कुछ लोगों ने कश्मीर को आजाद कराने वाला शहीद बताया। इन्होंने बच्चों को मारा और कुरान तक का अपमान किया ।%% ब्रिटेन के अप्रत्यक्ष समर्थन से हुए पठानों के इस हमले से भी जब कश्मीर को पाकिस्तान में नहीं मिलाया जा सका तो जनमत संग्रह की बात की जाने लगी। परंतु माउंटबेटन को लगा कि यदि उस कश्मीर में जनमत संग्रह होगा जिसका विलय भारत में हो चुका है तो उसका नतीजा भारत के हक में ही होगा। इसके बाद माउंटबेटन लाहौर गए और वहां उन्होंने जिन्ना से मुलाकात की। जिन्ना ने सुझाव दिया कि दोनों देशों की सेनाओं को कश्मीर से हट जाना चाहिए। इस पर माउंटबेटन ने पूछा कि आक्रमणकारी पठानों को वहां से कैसे हटाया जाएगा। इसपर जिन्ना ने कहा कि यदि आप उन्हें हटाएंगे तो समझो कि अब किसी भी प्रकार की बात नहीं होगी। यहां यह उल्लेखनीय है कि भारत के विभाजन के पहले जिन्ना कश्मीर गए थे। वहां उन्होंने यह कोशिश की थी कि कश्मीर के मुसलमान उनका साथ दें। परंतु कश्मीर के मुसलमानों ने स्पष्ट कर दिया कि वे भारत के आजादी के आंदोलन के साथ हैं तथा द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के विरोधी हैं। लाहौर से वापस आने पर माउंटबेटन ने सझाव दिया कि सारा मामला संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंप दिया जाए। 1 जनवरी 1948 को सारा मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद को सौंप दिया गया। जैसे ही मामला सुरक्षा परिषद को सौंपा गया ब्रिटेन ने भारत के विरुद्ध बोलना प्रारंभ कर दिया। इस बीच ब्रिटेन व अमेरिका ने भारत की हमले की शिकायत को भारत-पाकिस्तान के बीच विवाद का रूप दे दिया। सुरक्षा परिषद की बैठक में ब्रिटेन ने भारत की तीव्र शब्दों में निंदा की। इस बीच ब्रिटेन ने भारत पर युद्धविराम का प्रस्ताव मंजूर करने का दबाव बनाया। ऐसा उस समय किया गया जब भारतीय सेना आक्रमणकारियों को पूरी तरह से खदेड़ने की स्थिति में थी। परंतु ब्रिटेन व अमेरिका जानते थे कि यदि भारत ने आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया तो कश्मीर की समस्या सदा के लिए समाप्त हो जाएगी। इसलिए उन्होंने जबरदस्त दबाव बनाकर युद्धविराम करवा दिया। युद्धविराम का नतीजा यह हुआ कि कश्मीर का एक हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में बना रहा। इस बीच जनमत संग्रह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। परंतु उसके साथ यह शर्त रखी गई कि पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना हटा लेगा। इसके साथ ही यह शर्त भी रखी गई कि पाकिस्तान उन कबीलाईयों और पाकिस्तान के उन नागरिकों को वहां से हटाने का प्रयास करेगा जो वहां पाकिस्तान की ओर से युद्ध कर रहे थे। पाकिस्तान ने इस प्रस्ताव को स्वीकार तो कर लिया परंतु ब्रिटेन व अमेरिका ने पाकिस्तान पर इस पर अमल करने के लिए दबाव नहीं बनाया।
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