होली में यादें-यादों में होली
होली हमारी सतरंगी संस्कृति का एक मस्तीभरा त्यौहार है । आती फरवरी में वासंती हवाओं के संग और जाती फरवरी और मार्च में फिर फागुनी बयार के संग बौराए झूमते मन को शब्दों में बाँधना कई बार कठिन लगता है । इधर खेतों में लहराती पीली पीली सरसों,पेड़ों पर बौराते आम,मन को मोहते टेसू-पलाश,खेतों मे हवाओं संग झूमते सोने सी गेंहू की सुनहरी बालियों संग रंगबिरंगी प्रकृति पत्थरदिलों को भी खिलने को और खिलखिलाने को मजबूर कर देती है। __आज के बदलते समय में यों ही हर त्यौहार अपना मूल स्वरूप खोता जा रहा है और उसपर पानी बचाने.पर्यावरण को सहेजने,सूखे रंगों से होली खेलने जैसे संदेशों के बीच अब होली कब हो ली पता ही नही चलता। टीवी-मोबाईल, में जकड़ा कथित अभिजात्य वर्ग तो बच्चों के इम्तहान पास त्यौहार से दूर होता जा ही रहा है आमजन में र भी त्योहार कालानी आता आज के समय में मोबाईल फेसबकवाटसअप से भेजे जाने वाले होली के शभकामना संदेशों के साथ रंगबिरंगी टुमेजेस ही त्यौहार का पर्याय हो चली है। अब तो बस होली में यादें और यादों में होली बाकी नजर आती है। यादों के झरोखे से देखें तो आज से चार दशक पहले तक मस्ती के इस त्यौहार का इंतजार किया जाता था। देश के हर प्रदेश और अंचलों की तरह मालवांचल में भी होली की धूम मची रहती थी । होली की शाम मोहल्लों के बीच होली की सजावट की प्रतियोगिताएं होती थी। देवास में तो होली पर रांगोली सज्जा देखने पूरा शहर उमड़ पडता था। होलिकादहन की रात होली का चन्दा न देने वालों और आनाकानी करने वालों की होली के हुरियारे जो गत बनाते थे वो याद करके ही चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। हेयर कटिंग सेलून का बोर्ड डाक्टर के क्लिनिक पर और डाक्टर का साईन बोर्ड धोबी की लांड्री पर टंगा नजर आता था । गर्मी की रात अपने ठेले पर या बाहर ओटले पर एक जगह सोया आदमी आँख दूसरी जगह खोलता था क्योंकि हरियारे गुपचुप तरीके से बिना आवाज किये शरारतन उसे एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा देते थे। घरों के बाहर रखा लकड़ी का सामान होली की भेंट न चढ़ जाये इसका विशेष ध्यान रखना पड़ता था । उत्साह से भरे युवकों का झुण्ड बनाकर रातभर का जागरण करना और होली जलाने के लिए लकड़ी की चोरी का जुगाड़ होली की खास पहचान हआ करती थी। होली के दूसरे दिन और रंगपंचमी के पहले की रात से चौराहों पर रंगों से भरे कढ़ाव तैयार रहते थे जिनमे लोगों को डालने और लोगों का उनसे बचने का खेल बड़ा रोमांचक होता। रंगपंचमी पर वान वाली पिचकारी से घरों की खिड़की और बालकनी से मामखें और खबरत चेहरों को रंगीन बनाकर रंगरसिया बडे खश होते थे। होली पर खासकर घरों में बनने वाले पकवानों की तेयारी में गहिणियों का उत्साह देखते ही बनता था। ऐसा नही है कि होली की ठिठोली और मस्ती अब देखने को नही मिलती मगर बदलते समय के साथ न तो होली का वो मजा रहा और न ही मस्ती। आज तो घर से बेरंग निकला व्यक्ति होली के दिन भी बिना रंगे पते साबत घर लौट आता है। अनजाने तो ठीक है जान पहचान वालों को भी रंग लगाने में लोग परहेज करने लगे है । मोबाईल,फेसबुक,वाट्सअप और कंप्यूटर पर नीरस शभकामनाओं का आदान प्रदान करना ही होली मनाना हो गया है। अब तो बस होली में यादें और यादों में होली बची है।
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