अपनी बात- नफरत से लड़ते हुए

यह सुखद है कि सदियों के संघर्ष के बाद अर्जित मानव मूल्यों पर जब भी किसी कोने से कोई गंभीर हमला होता है, तो उसके खिलाफ उसी खित्ते के लोग मुखरता के साथ खड़े होने लगे हैं। इस लिहाज से फेसबुक ने श्वेत राष्ट्रवाद यानी 'व्हाइट नेशनलिज्म' की पैरोकारी वाली हर तरह की कार्रवाई को प्रतिबंधित करने का जो फैसला किया है, वह भले जनभावना के दबाव में उठाया गया कदम हो, इसकी सराहना की जानी चाहिए। पिछले दिनों इसी नस्लवादी विचारधारा से प्रेरित हत्यारे ने क्राइस्टचर्च की दो मस्जिदों में करीब 50 नमाजियों के नरसंहार का सीधा प्रसारण करके दनिया को दहला दिया था। तभी से सोशल मीडिया के तमाम माध्यमों पर नफरत भरी कार्रवाइयों को हतोत्साहित करने का दबाव बढ़ गया है। बताने की जरूरत नहीं कि फेसबुक के साथ ट्विटर, इंस्टाग्राम, यू-ट्यूब पर ऐसी सामग्रियों की भरमार है, जो समाज में घृणा के जहर घोलने का काम कर रही हैं। निस्संदेह, सोशल मीडिया के इन मंचों की लोकप्रियता या यूएसपी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इनके अरबों-खरबों के __ कारोबार का यही आधार है। मगर दिक्कत यह है कि यह बेलगाम आजादी अब गंभीर अंतर्विरोधों को जन्म देने लगी है और इसके साये में दहशत और नफरत के कारोबारी सक्रिय हो गए हैं। ऐसे में, स्वाभाविक है कि उदार से उदार समाजों और देश में भी अब इसकी समीक्षा की मांग जोर पकड़ रही है। तकनीकी तरक्की के मौजूदा युग में रोज नए-नए एप और वेबसाइटें गलत-सही सूचनाओं का अंबार लिए हमारे सामने आ खड़ी होती हैं। ऐसे में, ये कानून-व्यवस्था के लिए भी जटिल चुनौतियां पेश कर रही हैं। फेसबुक को ही लीजिए, रोजाना करीब डेढ़ अरब लोग दुनिया भर में इस मंच पर सक्रिय होते है। इतनी बड़ी जनसंख्या से आप संजीदगी बरतने की अपेक्षा नहीं कर सकतेतब तो और, जब ज्यादातर देशों के पास साइबर अपराधों से निपटने का मुकम्मल ढांचा तक नहीं। ऐसे में, यह जिम्मेदारी सोशल मीडिया के माध्यमों पर ही आयद होनी चाहिए कि वे अपनी साइट पर जाने वाली सामग्रियों की निगरानी का ठोस तंत्र विकसित करें। सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत सामाजिक ताने-बाने के लिहाज से ही संवेदनशील मसला नहीं है, अब यह लोकतंत्र के लिए भी गंभीर चुनौती के रूप में सामने है। अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में इसके जरिए रूसी हस्तक्षेप का मामला अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। हमारे आम चुनाव में भी एक बड़ी लड़ाई फेसबुक और ट्विटर पर लड़ी जा रही है। इसका सकारात्मक पहलू यह है कि फेसबुक-ट्विटर जैसे माध्यम उन पार्टियों और उम्मीदवारों के लिए एक सशक्त मंच बनकर उभरे हैं, जिनके पास चुनाव लड़ने के लिए आयोग द्वारा निर्धारित खर्च सीमा जितनी रकम भी नहीं। फेसबुक वगैरह का मकसद यही होगा कि सबको एक बराबर मंच मुहैया कराकर इसके जरिए अपने कारोबार का विस्तार किया जाए। लेकिन जैसा कि हरेक अच्छी पहल के साथ होता है, यह मंच भी बुरे पक्षों का शिकार बन गया है। कहने की जो आजादी मनुष्य के लिए सबसे बड़ा मूल्य है, उसे कुछ हत्यारों और असामाजिक तत्वों के कारण पाबंदियों का शिकार बनना पड़ा है। मगर इस मोड़ पर भी हम यही कामना करेंगे कि नफरतों को मिटाने के क्रम में अभिव्यक्ति की आजादी की हर सूरत में हिफाजत हो।


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