नेता नहीं, सजेता चाहिए
विनोद पटेल (मुंदी, खंडवा)/ जनसमूह को गृहस्थ के झंझट मे इतना अवकाश नही रहता कि वे अपने सामाजिक जीवन का संचालन कर सके। यह कार्य समूचे समाज की ओर से उसका एक अग्रणी या नेता करता है। वह अपने स्वभाव सिद्ध गुणो से तथा अपने मे उपयोगिता के कारण पूजनीय होता है वास्तव मे वह गणपति होता है, पर गणपति बनने के लिए, गणानां त्वा गणपति होने के लिए उसमे कई गुणो का समुच्चय होना चाहिए। नेता बड़ा पुराना शब्द है, किंतु जिस समय यह शब्द बना था उस समय पुरोहित ही नेता होता था। आज तो हर गली कूँचे मे, जिस कंकड़ पत्थर को उठा लीजिए वही नेता होगा। वर्षा मे मेढकों की बाढ आती है, प्रजातंत्र मे नेताओ की बाढ़ आ गई हमारे देश मे स्वराज्य हो गया , पर हम स्वराज्य का सुख नही भोग पाते है इसका कारण है कि हमारा नेता हमको चैन से नही बैठने देता। जहाँ समस्या नही है वहाँ कोई न कोई समस्या उत्पन्न कर देगा। यदि हम लेश मात्र भी सुख की सॉस लेना चाहेगें तो वह नई नई उलझने पैदा कर देगा। देश तथा समाज का उत्थान नेता पर निर्भर करता है। नेता यदि पथभ्रष्ट हुआ देश भी पतन की ओर अग्रसर हो जाता है, इसलिए और किसी विचार से नही अपनी रक्षा के विचार से ही हमको बहुत छानबीन कर अपना नेता चुनना होगा। आज की हमारी बहुत सी परेशानियों की जड़ हमारा गलत नेता भी हो सकता है। साधारण जनसमूह के पास न तो अवकाश है और न इतनी बुद्धि कि वह भले बुरे पहचान कर सके। कठिनाई यही है कि हम शास्त्र द्वारा प्रमाणित नेता को खोजते नही तलाश नही करते यदि हमे मिलता भी है तो उसकी कदर नही करते। जैसा समाज होता है वैसा नेता भी पैदा होता है जिस समाज को सच्चे नेता की आवश्यकता हो उसे अपना स्तर भी ऊँचा करना होगा तभी हमको असली सुख या शांति देने दिलाने वाला नेता प्राप्त होगा या यदि प्राप्त है तो उससे सुख प्राप्त होगा। उदाहरण अब कहाँ मिलेगा? पटेल, गांधी , नेहरू , तिलक , अब्दुल कलाम आजाद जैसे निस्पृह कैरियर पर लात मारकर स्वतंत्रता संग्राम मे अपनी क्षमता एवं प्रतिभा आहुति देने वाले अब कहाँ रहे? गाँव गाँव मे नगर नगर मे रामायण की चौपाइयो माध्यम से क्रांति का बीजारोपण करने वाले बाबा राघवदास अब कहाँ दिखाई पड़ते ? युगधर्म को समझने वाले आनंदमठ के सन्यासी कहाँ मिलते है गरीबो , पिछड़ो का दुःख दर्द समझने तथा घर घर जाकर भूदान यज्ञ की ज्योति जलाने वाले विनोबा अब चिराग लेकर ढूँढे नही मिलेंगे। कुप्रथाओ , अंधपरंपराओ , अंधविष्वासो के जाल छुड़ाने वाले समाजसुधारको का अब कही दर्शन नही मिल पाता। पीड़ितो को उठाने तथा पिछड़ो को मार्ग दिखाने वाले विद्यासागर तो मात्र अब स्मृति के विषय बनकर रह गए है। कर्मयोग का अलख जगाने तथा ज्ञानयोग की ज्योति जलाने वाले विवेकानंद दयानंद जैसे मार्गदर्शन अब मुश्किल से मिलेगे। ऐसा प्रतीत होता है कि स्वतंत्रता मिलने के कुछ दिनो बाद ही अपने देश मे निस्पृह नेताओ की वह पीढी काल के गर्भ समा गयी, जो बिना किसी स्वार्थ के अपने श्रम प्रतिभा के जल से समाज एवं को अभिसिंचित करती रहती थी। विशाल देश की अगणित सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक समस्याएँ है। तथाकथित नेताओ की उस भीड़ से समाज व देश का कुछ भी भला नही होने वाला है जो स्वयं ही स्वार्थी, संकीर्णताओ के जाल जंजाल मे उसी तरह जकड़े है, जिन्हे सामाजिक परिस्थितियों मे जरा भी ज्ञान नही है जिन्हे दूसरो की सेवा कष्टकारक प्रतीत होती है जो थोड़े भौतिक प्रलोभनो के झोको से तिनके की भॉति उड़ने लगते है, जिनका न कोई उच्चस्तरीय आदर्श है और न सिद्धांत । नेता के नाम लेते ही आम व्यक्ति की नजरो मे एक ऐसे खुदगरज व्यक्ति की तस्वीर घूम जाती है जिसे अपने स्वार्थी के अतिरिक्त किसी से मतलब नही। जो कुरसी एवं पद के लिए आम लोगो के हितो की बलि भी चढा सकता है। अब इन नेताओ की नही देश को स्रजेताओ कीआवश्यकताहै। समय की पुकार है नेता नही स्रजेता चाहिए। जिनमे समाजसेवा , लोकसेवा की पवित्र भावना है तथा सचमुच ही देश एवं समाज के लिए कुछ करना चाहते है, उन्हे नेता की अपेक्षा स्रजेता की भूमिका निभाने के लिए आगे आना चाहिए।
Comments
Post a Comment